देहरादून. आज भले ही उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में कई तरह के व्यंजन परोसे जा रहे हैं लेकिन पहाड़ से जुड़े लोगों को गढ़भोज ही पसंद आता है. गढ़भोज की बात करें, तो जिन व्यंजनों को बनाने के लिए पहाड़ के उत्पादों का प्रयोग किया जाता है, उन्हें गढ़भोज कहा जाता है. गढ़भोज अभियान के प्रणेता द्वारिका प्रसाद सेमवाल दो दशकों से इसके लिए काम कर रहे हैं. वह बच्चों और नई पीढ़ी को हमेशा उत्तराखंड के आंदोलन का नारा याद दिलाते हैं, ‘कोदा झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे’. आज उत्तराखंड के बनने के बाद मिलेट्स अभियान के साथ-साथ गढ़भोज अभियान भी जोरो-शोरों से चल रहा है. मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मिलेट्स को बढ़ावा देने पर जोर दे चुके हैं.
गढ़भोज अभियान के प्रणेता द्वारिका प्रसाद सेमवाल ने लोकल 18 को जानकारी देते हुए कहा कि उत्तराखंड के गढ़वाल, कुमाऊं, जौनसार और रवाई के अलग-अलग स्थानों में जो भोजन बनता था, उसे संयुक्त रूप से गढ़भोज कहा जाता था. उत्तराखंड के परंपरागत भोजन को गढ़भोज के नाम से पहचान मिली है. 7 अक्टूबर को गढ़भोज दिवस मनाया जाता है. साल 2000 में मंडुए आदि पहाड़ी उत्पादों से तैयार परंपरागत भोजन के लिए अभियान शुरू हुआ था. वहीं गढ़भोज अभियान भी इसी के साथ ही शुरू किया गया था.
होटल-रेस्टोरेंट में मिल रहा पहाड़ का जायका
उन्होंने आगे कहा कि इसका परिणाम यह हुआ कि होटल, रेस्टोरेंट, स्कूलों और सरकारी दफ्तरों में भी अब पहाड़ी व्यंजनों को परोसा जाने लगा है. सरकारी कैंटीन और मिड डे मील में अब इसको देकर स्कूली बच्चों को यानी आने वाली पीढ़ी को अपने परंपरागत संस्कृति और खानपान से जोड़ने का काम किया जा रहा है. उन्होंने कहा कि धीरे-धीरे अब लोग समझ रहे हैं और अपने पहाड़ के व्यंजनों का स्वाद ले भी रहे हैं और दूसरों तक भी पहुंचा रहे हैं. उन्होंने कहा कि कंडाली, कोदा और झंगोरा समेत पहाड़ी उत्पादों को अब अच्छा मार्केट मिल रहा है और होटल-रेस्टोरेंट में भी पहाड़ का भोजन परोसा जा रहा है.
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FIRST PUBLISHED : October 11, 2024, 16:23 IST