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हल्द्वानीः उत्तराखंड की शांत वादियों से एक ऐसी प्रेरक कहानी सामने आई है, जो यह साबित करती है कि सच्चा हुनर न तो सीमाओं में बंधा होता है और न ही हालातों से हार मानता है. यह कहानी है हल्द्वानी के कठघरिया क्षेत्र में रहने वाले 65 वर्षीय जीवन चंद्र जोशी की, जिन्होंने अपनी दिव्यांगता को कभी भी कमजोरी नहीं बनने दिया. पोलियो से ग्रसित होने के बावजूद उन्होंने एक अनोखी कला के माध्यम से न केवल खुद को स्थापित किया, बल्कि देश और दुनिया में अपनी पहचान बनाई.

जीवन चंद्र जोशी भारत के पहले ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें चीड़ के बगेट यानी चीड़ के पेड़ की सूखी छाल पर कला करने के लिए भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा सीनियर फेलोशिप से सम्मानित किया गया है. उनकी इस उपलब्धि ने उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक का प्रशंसा पात्र बना दिया है और पीएम ने रविवार को अपने मन की बात के 122वे संस्करण में उनका जिक्र करते हुए उनकी सराहना की. जिसके बाद पूरे उत्तराखंड में उनकी चर्चा होने लगी है.

कत्यूर शैली के मंदिर है आकर्षण

जीवन बताते हैं कि उनके द्वारा चीड़ की छाल से कई तरह की आकृतियां बनाई जा रही हैं, जिनमें कत्यूर शैली के मंदिर प्रमुख हैं, साथ ही कई भगवानों की मूर्तियां, योग मुद्राएं भी उनके द्वारा बनाई जा रहीं हैं, G20 में भी उनकी बनाई कलाकृतियां जा चुकी हैं, इसके साथ कुमाऊंनी वाद्य यंत्रों की कलाकृतियां भी उनके द्वारा बनाई जा रहीं हैं.

1 लाख तक की कलाकृतियां

जीवन बताते हैं कि उनके द्वारा बनाई गई कलाकृतियों में काफी मेहनत लगती है. वो चीड़ की लकड़ियों को खरीदते हैं और फिर चीड़ की खाल को तराशकर उसे एक कलाकृति में बदलते हैं. यह काम काफी मेहनत भरा और कई दिनों का है. यही वजह है कि इन कलाकृतियों की कीमत भी थोड़ी ज्यादा है. उनके पास 500 से लेकर 1 लाख तक की कलाकृतियां उपलब्ध हैं. उन्होंने बताया कि 70 हज़ार से 1 लाख तक की कीमत में उनके पास कत्यूर शैली में बना मंदिर हैं. जिसकी ऊंचाई 3 फीट है.

ऐसे बेचते हैं कलाकृतियां

जीवन बताते हैं कि अभी तक उन्होंने कहीं भी अपने उत्पादों को सीधे तौर पर नहीं बेचा हैं, हल्द्वानी कटघरिया में उनकी वर्कशॉप है, जहां से आप इन कलाकृतियों को खरीद सकते हैं, वहीं उन्होंने पहले लखनऊ, कलकत्ता, गुजरात और भोपाल मध्यप्रदेश में कई बार प्रदर्शनी लगाई है. इस प्रदर्शनी के माध्यम से उनकी कलाकृतियां दुनियाभर में जा चुकी हैं. उन्होंने कहा कि वो जल्द ही ऑनलाइन अपनी कलाकृतियों को बेचेंगे.

स्थानीय बच्चों को भी दे रहे हैं प्रशिक्षण

जोशी का मानना है कि यह कला उन्होंने सीखी नहीं, बल्कि महसूस की है. उनका कहना है कि जब आप अपनी सीमाओं को अपनाते हैं, तो वे ही आपको नई दिशा दिखाती हैं. करीब 30 सालों से वह इस कला को कर रहे हैं और अब स्थानीय बच्चों को भी इसका प्रशिक्षण देना शुरू कर चुके हैं. वहीं वो हल्द्वानी के छोटे स्कूलों में जाकर भी बच्चों को इस हस्तशिपल कला का प्रशिक्षण दे रहे हैं. हालांकि, उन्हें इस बात का दुख है कि नई पीढ़ी इस कला को अपनाने में रुचि नहीं दिखा रही. उनका मानना है कि यदि सरकार इस लोककला को बढ़ावा दे, तो इससे ना सिर्फ युवाओं को स्वरोजगार मिलेगा, बल्कि पहाड़ों से हो रहा पलायन भी रुक सकता है.

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