क्या आपके X अकाउंट पर ऐसे ढेरों मैसेज आ रहे हैं, जो आपको ये बता रहे हैं कि कैसे आपके शरीर को वो डिटॉक्स कर सकते हैं? क्या आपको ऐसी सलाह भी मिल रही हैं कि रात में दही खाना कैसे विज्ञान के हिसाब से ठीक नहीं है. या फिर कहीं आप ये सलाह पा रहे हैं कि कैसे बिना मांसाहार के बिना आपका वजन कम नहीं हो सकता. या फिर ये कि मांसाहार से आपको कैंसर का खतरा है. ये सब सलाह देने वालों के प्रोफाइल में आप जाएंगे, तो अंदाजा लग जाएगा कि ये खुद को गुरु जैसा प्रोजेक्ट करते हैं. आप प्रोटीन कितना लें और कितना नहीं. कैसी डाइट के नुकसान हैं. ये सब आपको बताने के लिये नये नये इंफ्लुएंसर आपको एक्स, इंस्टा और फेसबुक पर मिल जाएंगे.
सवाल ये नहीं है कि कौन सही है और गलत… बड़ा सवाल ये है कि इन लोगों की योग्यता है भी या नहीं. इनकी कही बातों की जिम्मेदारी कौन लेगा. जाहिर सी बात है कि अब तक ऐसा कोई तंत्र सरकार ने खड़ा नहीं किया है, जो ये बता सके कि सोशल मीडिया पर आकर आप कोई भी सलाह देने के योग्य हैं या नहीं. दिलचस्प बात है कि सेबी जैसे संगठन आपके वित्तीय जोखिम को संचालित करने के लिए काम करते हैं. वो बाकायदा ये प्रमाण पत्र देते हैं कि फलां व्यक्ति के पास आपको वित्तीय सलाह देने की योग्यता है, लेकिन आपके स्वास्थय को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाले लोगों के लिये कोई मैकेनिज्म नहीं है.
पिछले कुछ दिनों में लगातार प्रोफाइल चेक करने और तमाम किस्म के गुरुओं के संदेशों को पढ़ने के बाद इस नतींजे पर पहुंचा हूं कि इनमें से ज्यादातर का मकसद खुद की रीच बढ़ाना है. जो भी लोग अब ऑनलाइन प्रचार प्रसार कर रहे हैं, उनके खतरे बड़े हैं. पहला बड़ा खतरा तो यही है कि इनकी सलाहों को किसी वैज्ञानिक कसौटी पर कसने के लिये कोई तंत्र नहीं है. कोई व्यक्ति अगर ये सलाह दे रहा है कि रात में दही खाने के नुकसान हैं, तो उससे उम्मीद की जाती है कि वो इस बात के समर्थन में कुछ प्रमाण पेश करेगा, लेकिन ऐसा होता नहीं है. सलाह देने वाला एक अप्रमाणिक सलाह दे रहा है और लोग उसे मान भी रहे हैं.
हाल ही में एक 50 साल के व्यक्ति का केस सामने आया है. इसमें वो सोशल मीडिया सेलिब्रिटी की दी डिटॉक्स की सलाह फॉलो कर रहे थे. डिटॉक्स को लेकर उनकी दी सलाह के चलते ये शख्स अस्पताल पहुंच गया. देश में स्वास्थय संबंधी सलाहों को लेकर भ्रम हर एक जगह है. अब तक हमें ये नहीं मालूम कि कौन कौन सी वेबसाइट भरोसा करने लायक हैं. सोशल मीडिया ऐसे लोगों से भरे पड़े हैं, जो आपको वेबसाइट पर जाकर पढ़ने की सलाह दे रहे हैं. ये वेबसाइट किस मकसद से चल रही हैं, इसको नियंत्रित करने का कोई फॅार्मूला अब तक नहीं बना है.
मेटा की एक स्टडी कहती है कि ज्यादा खाने की समस्या से परेशान लोगों ने जब ऑनलाइन हेल्थ टिप्स लेने की कोशिश की है, तो इसका उन्हें नुकसान ही हुआ है. स्कूल से लेकर कॉलेज तक कहीं भी ये नहीं पढ़ाया जा रहा है कि अगर आप सोशल मीडिया या इंटरनेट की दुनिया में स्वास्थ्य से जुड़ी कोई जानकारी पढ़ रहे हैं, तो उसे कैसे प्रोसेस करें. उस जानकारी को तौलने के मापदंड कहीं भी नहीं सिखाए जा रहे हैं.
स्वास्थ्य संबंधी सलाह देने वाले उस अविश्वास को भी बल दे रहे हैं, जिसको लेकर कभी कोई रिसर्च नहीं की गई है. सोशल मीडिया ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जो आपके हर खाने या इस्तेमाल में आने वाली चीज पर संदेह पैदा कर सकते हैं. मसलन, आपके टूथपेस्ट में जहर है. या फिर ये दावा कि आलू के रस से कैंसर का इलाज किया जा सकता है. सोशल मीडिया पर ऐसा डर पैदा करके लाइक और शेयर बढ़ाने का चलन उसी श्रेणी में आता है, जिसमें बिना रिसर्च के डिटॉक्स की सलाह दी जाती है. जानकार कह रहे हैं कि खुद के स्वास्थय को लेकर पहले से ही डरे लोगों की एल्गोरिदम अब उन्हें भयभीत कर रही है.
नीम हकीम उन्हें डॉक्टर के चोले में नजर आ रहे हैं. सार्वजिनक स्वास्थय को लेकर एक पूरा तूफान अब सोशल मीडिया पर है. कोविड वैक्सीन के दुष्परिणामों से निपटने के लिये अब सोशल मीडिया के गुरु हाथ आजमाने लगे हैं. वो ये बता रहे हैं कि कैसे आप खतरों को दूर कर सकते हैं. ये तमाम लोग उस डर की सवारी कर रहे हैं जिसके खतरे बहुत कम हैं. अनियंत्रित सोशल मीडिया और इंटरनेट के दावे हमें एक ऐसे समाज में बदल सकते हैं, जो हर छोटी सी समस्या को विकराल मानने लगे हैं. गंभीर और अच्छे हेल्थ प्रोफेशनल के पास इतना वक्त नहीं है कि वो इंटरनेट पर आ रही हर घटिया जानकारी को लाल झंडी दिखा सकें. हम एक ऐसे दौर में पहुंच चुके हैं, जहां अब सरकारों को ये तय करना होगा कि आपकी सेहत को लेकर कौन सलाह देने लायक है और कौन नहीं.
अभिषेक शर्मा NDTV इंडिया के मुंबई के संपादक रहे हैं. वह आपातकाल के बाद की राजनीतिक लामबंदी पर लगातार लेखन करते रहे हैं.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.